पेट सम्बन्धी रोग तथा उपचार
हम सभी जानते है कि सभी प्रकार के दोषों और विकारों का उत्पत्ति स्थल हमारा पेट ही है और हमारे पेट के स्वास्थ्य पर ही शरीर की समस्त प्रणालियों तथा अवयवों का स्वास्थ्य भी अवलम्बित है। यदि हमारा पेट ठीक रहेगा तो हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा और यदि हमारा पेट खराब है तो हम सभी रोगों को निमन्त्रण जाने या अनजाने में देने लगते हैं। पेट ठीक होने पर ही भोजन का भलीभाँति पाचन तथा अवशोषण होता है और शरीर के सभी अवयवों में स्वस्थ और अमृत जैसा पोषण पहुँचने लगता है। पेट के खराब होने पर वही आहार जहर में परिवर्तित हो जाता है। ऐसा विषाक्त पोषण हमारे सभी अंगों को धीरे-धीरे रोगी बनाने लगता है। यदि हमारा पेट स्वस्थ रहे तो हमारे शरीर के सभी अवयव एवं सप्त धातु- रक्त, मांस, अस्थि, मेदमज्जा, वीर्य तथा ओज, हृष्ट-पुष्ट, सशक्त एवं स्वस्थ होकर हमें शक्तिवान् और रोगमुक्त बनाने लगते हैं। आधुनिक चिकित्सा की विभिन्न पद्धतियों में पेट के रोगों का सही और प्रभावी निदान नहीं है। केवल होमियोपैथी ही एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है, जिससे हमें पेट सम्बन्धी समस्त बीमारियों के सम्बन्ध में उचित मार्गदर्शन एवं इलाज का विवरण उपलब्ध है। अन्य चिकित्सा पद्धतियों में पेट के रोगों को कुछ देर के लिए दबा तो देती है जिससे कुछ देर के लिए राहत मिल जाती है, किन्तु उनका स्थायी इलाज नहीं करती है और बाद में दबा हुआ रोग घातक जीर्ण और चिरकालीन (क्रोनिक) के रूप में सामने आता है। परन्तु होमियोपैथी की चिकित्सा दमनात्मक नहीं है बल्कि अपनयनमूलक, क्यूरेटिव एलिमिनेटिव तथा पुनर्जीवन प्रदान करने संजीवनी की तरह होती ऐसी विषम परिस्थितियों में होमियोपैथी की दवाइयों की माँग उत्तरोत्तर बढ़ती जायेगी ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है। इसकी सहजता और सरलता के कारण कोई भी व्यक्ति आसानी से बहुत अधिक धन व्यय किये बिना अपना उपचार कर सकता है। यद्यपि जटिल रोगों में उसे विशेषज्ञ द्वारा उपचार लेना भी अत्यन्त आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि होमियो चिकित्सा स्वास्थ्य का विज्ञान है। जबकि अन्य सभी प्रकार की औषधि चिकित्सा पद्धतियाँ रोग का विज्ञान है। इसी कारण इन प्रचलित औषधि चिकित्सा पद्धतियों में स्वास्थ्य की अपेक्षा निदान पर ज्यादा बल दिया जाता हैं। इन चिकित्सा पद्धतियों में रोग का उपचार किया जाता है, जबकि होमियोपैथी चिकित्सा में रोगी का उपचार होता है और मूल कारण को दूर किया जाती है। औषधि चिकित्सा पद्धतियों में रोगी को अनेक दवायें प्रयोग हेतु दी जाती है। जिनसे उसकी रोग-प्रतिरोधक क्षमता अथवा जीवनी शक्ति कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में उसे भविष्य में पुनः रोगी बनने की सम्भावना भी बनी रहती है। इसीलिए यह कहावत ठीक ही है कि ‘ज्यों-ज्यों दवा की मर्ज बढ़ता गया’ परन्तु ऐसी कोई परिस्थिति होमियो चिकित्सा के अन्तर्गत उत्पन्न नहीं होती है। हम रोग के परीक्षण की अपेक्षा व्यक्ति के परीक्षण को ज्यादा महत्त्व देते हैं।
पेट सम्बन्धी रोग तथा उपचार
पेट व पाचन के रोगों में निम्नलिखित रोग प्रमुखता से पाये जाते हैं-
1. अपच (Dyspepsia)
2. दस्त (Diarrhoea)
3. कब्ज (Constipation)
4. पेट दर्द (Abdominal Pain or Abdomanalgia)
5. अम्लता (Acidity, Gastritis)
6. उल्टी (Vomiting)
7. आव पेचिस (Dysentery,
8. पेट के घाव (Ulcer) Colitis)
9. पीलिया (Jaundice)
10. बवासीर (Piles)
11. भगन्दर (Fistula of Rectum)
12. अपेंडिक्स की पीड़ा (Appendicitis)
13. हर्निया (Hermia)
14. काच निकलना (Prolapse of Rectum)
15. पित्त की थैली में पथरी (Gal 16. कृमि (Worms) Bladder Stone)
इस प्रकार पेट सम्बन्धी रोगों में उपरोक्त रोग प्रमुख है। इन रोगों का विवरण तथा उपचार निम्न है।
1. अपच (Dyspepsia)
भोजन पाचन क्रिया की गड़बड़ी ही अपच या बदहजमी है। पेट फूलना, कब्ज, डकार आना बार-बार दस्त आना, छाती या गले में जलन पेट में भारीपन, भोजन के बाद पेट में दर्द तथा सिरदर्द आदि इसके प्रधान लक्षण है। यह रोग प्रायः घी और तेल की बनी चीजों का अधिक मात्रा में खाना, बिना चबाये भोजन निगल जाना तथा बर्फ, शरबत, चाय, कॉफी अधिक मात्रा में तथा बार-बार पीने या खाने से होता है।
उपचार
(a) नक्सवामिका 30- भोजन के पश्चात् पाचन स्थली में भार और दर्द का महसूस होना, पेट फूलना, कच्ची डकारें आना, कलेजे में जलन भोजन के बाद नींद व आलस्य आना, बार-बार मल त्याग करने की इच्छा होना।
(b) नेट्मम्यूर 12x- आलू मैदा की बनी भारी चीजों के खाने से तथा अजीर्ण रोग में इस दवा को देने से विशेष लाभ होता है।
(c) पल्सेटिला 30- सिर घूमना, मितली, सूखी जीभ, बार-बार पतला या आंव मिला दस्त, मुँह का स्वाद नमकीन सा होने पर।
(d) लाइकोपोडियम 200- नीचे की ओर वायु निकलना, पढ़ने-लिखने में अधिकता के कारण तथा अपच होने के कारण।
(e) कार्बोवेज 30- ऊपर की ओर वायु का निकलना पुराने बदहजमी में तथा बूढों में अपच होने की दशा में यह अधिक लाभप्रद दवा मानी गयी है।
(1) सिपिया 3- पुराने अजीर्ण रोग में विशेषकर जरायु रोग होने पर यह दवा अत्यन्त उपयोगी होती है।
2. दस्त (Diarrhoea)
बार-बार बहुत ज्यादा परिणाम में पतले दस्त आने को अतिसार या दस्त कहते हैं। इस रोग की पुरानी अवस्था संग्रहणी कहलाती है। गर्मी के दिनों में बहुत गर्मी और जाड़े के दिनों बहुत जाड़ा लगने, उपवास, शारीरिक या मानसिक श्रम, सड़ी-गली चीजों के खाने से यह रोग होता है। पहले साधारण दस्त होते हैं बाद में पतले दस्त होने लगते हैं। उसमें कफ या आंव जैसा पदार्थ अथवा खायी हुई चीजें ज्यों की त्यों मिली हुई दिखायी पड़ती है। दस्तों का रंग कभी हरा, काला, मटमैला रहता है। बार-बार आने वाले दस्तों के कारण रोगी बहुत कमजोरी महसूस करने लगता है। इसकी दवायें तथा चिकित्सा निम्न हैं-
उपचार
(a) नक्सवामिका 30- मैले, हरे या काले रंग के दस्त और सुबह और पिछली रात्रि में दस्तों का बढ़ना बार-बार वेग होने पर भी खुला दस्त न आना। नशाखोरी के कारण इस रोग में नक्सवामिका 30 विशेष प्रभावकारी दवा है।
(b) एलोज 6- अनजान में दस्त, पेशाब या सर्दी के कारण रोग का होना।
(c) डलकामारा 6-ठण्डी हवा लगने से या सर्दी के कारण रोग का होना।
(d) एकोनाइट- डर जाने के कारण रोग होने पर इसे देना चाहिए।
(e) स्पिरिट कैम्फर- हाथ पैर और चेहरा ठण्डा, अचानक दस्तों के होने पर इसका सेवन लाभप्रद है।
(1) अन्य दवायें- इपिकाक, आर्सेनिक, ब्रायोनिया, फॉस्फोरस, पल्सेटिला, थूजा आदि दवायें विशेष लाभदायी होती हैं।
3. कब्ज (Constipation)
जीवन पर्यन्त अपने शरीर को स्वस्थ और निरोग बनाये रखने का एकमात्र मूलमन्त्र यह है कि हम अपने को कब्ज से सदैव मुक्त बनाये रखें। कब्ज में बड़ी आँतों की मांसपेशियाँ जब स्वाभाविक आकुंचन या संकोचन एवं प्रसारण या संवर्धन के साथ-साथ आँतों में होने वाली हिलोरन (या पैरिलेस्टिक एक्शन) द्वारा अन्त्र रस तथा मल को आगे ढकेलने में असमर्थ होने लगती है, तभी हमें कब्ज की बीमारी होती है। चौबीस घंटे में एक ही बार शौच जाना या दो बार से अधिक जाना, आँत में मल रुक जाना, शौच जाने के बाद भी पेट का हल्का तथा साफ होने का अनुभव न होना, शौच में अधिक समय का लगना, भूख का न लगना, कब्ज के प्रमुख लक्षण हैं। बिना चबाये खाना कब्ज रोग का प्रमुख कारण है। अगर हम खाना को चबा-चबा कर भोजन करने की आदत डाल लें तो हम 75% कब्ज की इस समस्या से स्वतः ही मुक्त हो जायेंगे। गलत खाना, बिना भूख खाना, अधिक खाना, बिना चबाये खाना, कब्ज के प्रमुख कारण है। इसके अलावा उपयुक्त श्रम का अभाव, मानसिक चिन्ता, नशा आदि भी इस रोग के प्रमुख लक्षण माने गये हैं। इस रोग में सिर में भारीपन, आँतों और पाक स्थली में दबाव मालूम पड़ना, बार-बार मल त्याग करने की चेष्य, बुखार की तरह अनुभव होना, बिलकुल ही पाखाना न जाना आदि प्रमुख लक्षण होते हैं।
उपचार
(a) नक्स बोमिका 30- बार-बार पाखाना लगता है पर होता नहीं हैं और होता भी है तो बहुत थोड़ा-थोड़ा। पाखाना खुलकर नहीं होता है। ऐसा मालूम पड़ता है कि थोड़ा न भीतर रह गया है।
(b) ब्रायोनिया 30- मल सूखा, कड़ा तथा मानों जला हुआ हो। प्यास ज्यादा सिरदर्द, वात वाले रोगियों के लिए यह दवा विशेष लाभकारी होती है।
(c) एलयूमिना 30- पाखाना लगता ही नहीं है। कई दिनों तक दस्त ही नहीं आते, पेट में मल इकट्ठा हुआ करता है।
(d) सीपिया 30- बड़ा और कड़ा मल बड़ी तकलीफ से निकलता है। मलद्वार में भार मालूम पड़ना होता हो।
(e) सल्फर 200- मल कड़ा बड़ा सूखा, बहुत दर्द के साथ मल आये मलद्वार पर लाली और खुजलाहट।
(1) थूजा 200- गहरी कब्जियत, पाखाना लगता है पर होता नहीं है। कड़े गोलों की तरह मल आता है। थोड़ा-सा मल निकलकर फिर मल भीतर वापस घुस जाता है।
(g) कालिन सोनिया 30- प्रसव के बाद होने वाले कब्ज में अत्यन्त लाभकारी है।
(h) ग्रेफाइटिस 30- मल कड़ा, गाँठ की तरह बड़ा, मुश्किल से निकलता हो।
(i) अन्य दवायें- साइलिशिया, ग्रेफाइटिस, लाइकोपोडियम, मैग्नीशियाम्यूर, एना कार्डियम आदि।
4. पेट दर्द (Abdominal Pain or Abdomanalgia) उपचार
(a) लाइकोपोडियम 30- पेट में गैस भर जाये, पेट फूल जाये, मानों पेट फटा सा जा रहा हो। गरम भोजन लेने से आराम होता है। पेट में बड़े जोरों से मरोड़ का दर्द होता हो।
(6) पल्सेटिला 30- पेट पर मानो पत्थर रखा हो, पेट दर्द एवं गड़गड़ाहट महसूस हो, घी-तेल से बना खाना खाने से दर्द होता हो।
(e) बेलडोना 30- दर्द एकाएक पैदा होता है, पेट फूलता है, तेज दर्द, हिलने-डुलने और दबाने से दर्द होता हो।
(d) कैमोमिला 200- चिड़चिड़ापन, चिड़चिड़े बच्चों के पेट में दर्द के समय लाभप्रद होता है।
(e) कोलोसिन्थ 200- पेट में बहुत तकलीफ देने वाला दर्द खासतौर पर नाभि के चारों तरफ होता ही, सामने झुकने से आराम मिलता है।
(1) डायस्कोरिया 30- पीछे की ओर झुकने में दर्द में आराम मिलता है। हाथ-पैरों को फैला देने से भी आराम मिलता है।
पेट दर्द प्राय: दो प्रकार का होता है।
(1) तीव्र पेट दर्द (Abdominal Pain) (2) जीर्ण पेट दर्द (Acute Abdominalgia)।
कब्ज की स्थिति में भी पेट दर्द होता रहता है। आँतों के संक्रमण, सूजन एवं प्रदाह में ज्वर के साथ पेट दर्द होता है। कभी-कभी अण्डकोश आँतों में रुक जाने से पेट दर्द होता है। गुर्दे सम्बन्धी दर्द (Renal colic) कमर या उदर के ऊपरी हस्से के किसी एक भाग (बायें या दायें या दोनों तरफ) में होता है। गाल ब्लैडर की पथरी, रुकावट तथा प्रदाह में पेट की दायीं तरफ ऊपरी हिस्से में दर्द होता है। महिलाओं के मासिक धर्म के समय भी पेट दर्द (डिस्मेनोरिया) होता है। अजीर्ण तथा आँतों में स्पास्म के कारण भी दर्द होता है। एपेण्डिक्स में अचानक रुकावट संक्रमण अवरोध होने से दायीं तरफ दबाने से दर्द होता है। डूयूडिनल या गैस्ट्रिक (आँतों तथा आमाशय) के अल्सर में पेट के ऊपर वाले हिस्से में अचानक दर्द उठता है। इस प्रकार पेट दर्द के अनेक कारण हो सकते हैं।
5. अम्लता (Acidity, Gastritis)
गलत एवं विकृत आहार, अति भोजन, तले-भुने, मिर्च-मसाले वाले भोजन, मांस, अण्डा, तम्बाकू, शराब, सोडा, चाय, कॉफी, शीतल पेय, कोला, फास्ट फूड वाले भोजन बासी खाना, अति अम्लीय तथा मैदे से बने आहार अम्लपित्त पैदा करते हैं। मानसिक, क्रोध, तनाव, चिन्ता, भय, ईर्ष्या द्वेष इत्यादि। मन:स्थितियों में भी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से निकलने वाला रस, स्राव तथा पाचन संस्थान को नियन्त्रित करने वाले स्नायु बेगस नर्व के उत्तेजना से पाचक रसों का संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है। इसके परिणाम स्वरूप हाईपर, एसीडिटी उत्पन्न हो जाती है। अम्ल पित्त का मुख्य कारण आमाशय है, जो कफ एवं अम्ल पित्त का आश्रय स्थल भी है। कफ और पित्त से अम्लपित्त की उत्पत्ति होती है। जो लोग परिशोधित कार्बोहाइड्रेट स्टार्च, चीनी ज्यादा लेते हैं, उन्हें अम्लपित्त की शिकायत ज्यादा होती है। पेट में जलन, पेट में वायु बनना, खट्टी डकारें आना इसके प्रमुख लक्षण होते हैं।
उपचार
(a) नक्सबोमिका 30- खाना ठीक तरह से हजम नहीं होता है। कब्ज रहती है तथा थोड़ा-थोड़ा पाखाना भी होता है।
(b) कार्बोवेज 6- इसमें अम्लत के साथ पेट के ऊपरी भाग में गैस बनती वायु भरने
(c) चाइना 3- इसमें पेट में वायु भर जाती है, न तो गैस ऊपर से पास होती है और न नीचे से।
(d) नेट्रम फास 12x- खट्टी डकार, पेट फूलना।
(e) लाइकोपोडियम 30- पेट फूलता है, गड़गड़ाता है, पेट में की अनुभूति होती है।
(e) एसिड सल्फ- दाँत तक खट्टे होना, छाती में जलन, अम्लता की उल्टी।
6. उल्टी (Vomiting Emetis of Nausea)
उपचार
(a) इथूजा 30- दूध पीने के बाद यदि बच्चा शीघ्र उल्टी कर देता हो।
(b) आर्सेनिक एलवम 30- बार-बार उल्टी होना, पानी की प्यास तीव्रता से लगना, विषाक्त भोजन के कारण उल्टी का होना।
(c) इपिकाक 30- जी मिचलाकर उल्टी का होना बार-बार उल्टी होती हो।
(d) फास्फोरस 30- पेट में थोड़ी पानी रहने के पश्चात् उल्टी हो जाती हो (Travelling sickness)।
(e) बोरेक्स 30- वायुयान में बैठने पर गिरने का भय, वायुयान में चढ़ने से पहले दवा लें।
(1) कोकुलस इण्डिका 30- अगर बस या गाड़ी में उल्टी होती हो एक दिन पहले से लें, हर आधे घंटे में।
7. आव पेचिस (Dysentery, Colitis)
चौबीस घंटे में 15 से 30 बार लगातार आंव के साथ पाखाना आता है। मरोड़ के साथ कभी सिर्फ आंव आता है तो कभी खुन के साथ आंव आता है। एठन के साथ बार-बार मल त्याग की प्रवृत्ति होती है। मल त्याग के बाद ऐंठन, मरोड़ में कमी के कुछ देर बाद पुनः मरोड़ प्रारम्भ हो जाता है। चुभने जैसा मीठा दर्द जी मिचलाना, वमन तथा सिरदर्द के लक्षण। पेचिस प्रायः कई प्रकार के सूक्ष्म रोगाणुओं के कारण होता है। ये रोगाणु प्रायः जल या बाजारू खाद्य पदार्थों के सहारे आँतों में पहुँच जाते हैं। आँतों की झिल्ली के नीचे अपना आश्रय बनाकर संक्रामक रोग (पेचिस) उत्पन्न करते हैं। ये आँतों में घाव तथा फोड़े भी पैदा कर देते हैं। पेचिस के कारण आँतों की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर हो जाती है। शरीर में संचित मल और विकार ज्ढ़ने लगते हैं। इसके साथ विभिन्न प्रकार के कीटाणुओं की संख्या भी पनपने लगती है। शरीर इन कीटाणुओं और संचित मल को निकाल बाहर करने की जो प्रक्रिया अपनाता है, उसे ही पेचिस के नाम से जाना जाता है। उपचार के पूर्व आवश्यक है कि रोगी की आहार चिकित्सा पर विशेष ध्यान दिया जाये।
उपचार
(a) नक्स नामिका 30- बार-बार हाजत का लगना, पाखाना के पहले और पाखाना करते समय पेट में दर्द होता है।
(b) ऐलो 30- पेट के दर्द के साथ रक्त का आना और अनजाने में पाखाना हो जाना।
(c) मर्क कोर 30- अचानक पाखाना लगना, पाखाने में रक्त का आना, चेष्टा करने पर भी पाखाना न होता हो।
(d) अर्जेन्टम नाइट्रिकम 30- पुरानी पेचिस की यह एक असरदार दवा है।
8. पेट के घाव (Ulcer)
शरीर के ऊपर होने वाला घाव व्रण कहलाता है और शरीर के अन्दर होने वाले घाव को अल्सर कहते हैं। विभिन्न शोध अध्ययनों से पता चला है कि ड्यूडिनल अल्सर महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में ज्यादा होता है। महिलाओं में गैस्ट्रिक अल्सर ही ज्यादा होता है। स्त्रियों के आमाशय में एसिड बनाने वाली काशिकाओं की संख्या कम होती है. फलतः उनकी अल्सर से रक्षा होती है। भारत में बंगाल, बिहार, केरल, महाराष्ट्र, मद्रास, असम और आन्ध्रप्रदेश में तथा चावल ज्यादा खाने वाले अन्य प्रान्तों के लोगों में अल्सर होने की संभावना ज्यादा होती है। चिन्ता, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिस्पर्धा एवं मानसिक तनावों की स्थितियों में रक्त में एडिनलिन की मात्रा बढ़ जाती है। साथ ही वेगस नर्व के उत्तेजना से आमाशय की कोशिकाएं ज्यादा मात्रा में अम्ल छोड़ने लगती है। लगातार तनाव बने रहने पर अल्सर गहरा और जीर्ण होने लगता है। स्ट्रेस तथा स्ट्रेन अल्सर के प्रमुख कारण हैं। बचाव- चाय, कॉफी ठण्डी करके लें, ज्यादा गरम न पीये। इन्हें बहुत कम कर दें या बन्द कर दें। शराब, सिगरेट बिल्कुल छोड़ दें। तनावों से अपने को मुक्त रखें। ज्यादा तनाव, चिन्ता एवं क्रोध से एसिड ज्यादा बनता है, जो अल्सर बनाता है। ज्यादा नमक, मिर्च मसालेदार भोजन न लें। अगर गैस्ट्रिक अल्सर हो तो ठण्डा दूध तथा होमियोपैथिक करे नेट्रमफास दवा लें। इसके अलावा एसिड सल्फ भी पेट के अल्सर की उत्तम श्वा है। अगर पेट में अल्सर के साथ गैस होने की शिकायत हो तो लाइकोपोडियम औषधि 200 शक्ति में एक-दो खुराक लेना चाहिए। कार्बोवेज भी गैस्ट्रिक अल्सर की उत्तम दवा है तथा सल्फर को भी गैस्ट्रिक अल्सर में बहुत उपयोगी माना गया है और आर्सेनिक अल्ब तो आँत के अल्सर तथा कोलाइटिस की रामबाण दवा है।
9. पीलिया (Jaundice)
यह रोग यकृत के पित्त निकलने की क्रिया में गड़बड़ी से होता है। आहार का असंयम, अनियमित और असंयमित भोजन, मद्यपान आदि अनेक कारण इस रोग के लिए प्रत्यक्षतः उत्तरदायी होते हैं। इस रोग में शरीर की त्वचा, आँख का आवरण श्वेत तथा पेशाब का रंग पीला हो जाता है।
(a) उपचार नक्सवोमिका 30- ज्यादा शराब के सेवन तथा ज्यादा एलोपैथिक दवाइयों के सेवन से होने वाले पीलिया में उपयोगी औषधि है। ज्यादा कब्ज रहे तथा यकृत में ज्यादा पीड़ा होती हो तो इसका सेवन करें।
(b) एकोनाइट 30- गर्भवती स्त्रियों में इस रोग के उत्पन्न होने पर यह दवा परम लाभकारी होती है।
(c) चायना 30- मलेरिया रोग के बहुत दिनों तक रहने के पश्चात् दुर्बलता, पित्त प्रबलता तथा दस्त पीले होने की दशा में इसका सेवन करें।
(d) चेलिडोनियम 6- यकृत में वेदना, पीली जीभ, मुँह का कडुआ स्वाद, दायें कन्धे की पीड़ा में इसे दें।
(e) मर्कसोल 30- मुँह में ज्यादा लार एवं छाले, रात में यदि रुक-रुक कर पेटदर्द होता हो तो इस औषधि को दें।
10. बवासीर (Piles)
इस रोग के होने पर मलद्वार के भीतर और बाहर की नसें फूल जाती हैं तथा चमड़ा सख्त और संकुचित हो जाता है और मस्से पैदा हो जाते हैं। इनमें खुजली, वेदना, तनाव और जलन होती है। मस्सों से खून निकलने पर खूनी और खून न निकलने पर वादी बवासीर कहलाता है। इस प्रकार बवासीर प्रकार की होती है- क. खूनी बवासीर- मलत्याग के समय मस्सों से खून का निकलना। ख. सूखी तथा वादी बवासीर- मलत्याग के समय खून का न गिरना।
उपचार
(a) हेमामेलिस 2x- खूनी बवासीर में उपयोगी दवा।
(b) सल्फर 30- पुरानी बीमारी में लाभप्रद, सुबह सल्फर और शाम में नक्स देना चाहिए।
(c) कास्टिकम 6- बहुत कब्जियत, मस्सा फूला तथा उसमें जलन।
(d) इरिजिरिन 30- खूनी बवासीर में उपयोगी।
(e) नक्स वामिका 30- आलसी और शराबियों की बीमारी में लाभप्रद।
(1) एलो 200- गुदा द्वार पर जलन, खुजली तथा ठण्डे जल के प्रयोग से आराम।
(g) काली कार्ब 30- बड़े फूले हुए तथा दर्द और मलद्वार में जलन की दशा में उपयोगी।
(h) आर्सेनिक 30- जलन की तरह दर्द, गरम पानी से बेचैनी और घबराहट में आराम मिलता है।
(i) बेलडोना 30- मलद्वार पर लाल-लाल सूजन थोड़ा-सा छूने में असहनीय दर्द।
10. बवासीर (Piles)
इस रोग के होने पर मलद्वार के भीतर और बाहर की नसें फूल जाती हैं तथा चमड़ा सख्त और संकुचित हो जाता है और मस्से पैदा हो जाते हैं। इनमें खुजली, वेदना, तनाव और जलन होती है। मस्सों से खून निकलने पर खूनी और खून न निकलने पर वादी बवासीर कहलाता है। इस प्रकार बवासीर प्रकार की होती है- क. खूनी बवासीर- मलत्याग के समय मस्सों से खून का निकलना। ख. सूखी तथा वादी बवासीर- मलत्याग के समय खून का न गिरना।
उपचार
(a) हेमामेलिस 2x- खूनी बवासीर में उपयोगी दवा।
(b) सल्फर 30- पुरानी बीमारी में लाभप्रद, सुबह सल्फर और शाम में नक्स देना चाहिए।
(c) कास्टिकम 6- बहुत कब्जियत, मस्सा फूला तथा उसमें जलन।
(d) इरिजिरिन 30- खूनी बवासीर में उपयोगी।
(e) नक्स वामिका 30- आलसी और शराबियों की बीमारी में लाभप्रद।
(1) एलो 200- गुदा द्वार पर जलन, खुजली तथा ठण्डे जल के प्रयोग से आराम।
(g) काली कार्ब 30- बड़े फूले हुए तथा दर्द और मलद्वार में जलन की दशा में उपयोगी।
(h) आर्सेनिक 30- जलन की तरह दर्द, गरम पानी से बेचैनी और घबराहट में आराम मिलता है।
(i) बेलडोना 30- मलद्वार पर लाल-लाल सूजन थोड़ा-सा छूने में असहनीय दर्द।
11. भगन्दर (Fistula of Rectum)
इस रोग में मलद्वार के नीचे के हिस्से में ढीले तंतुओं पर फोड़ा होता है। मलद्वार के बाहर की ओर प्रायः फोड़ा फूट जाने पर इसकी दीवारों में सिकुड़न आ जाती है और यह नल के समान हो जाता है जिसमें अन्दर एवं बाहर दो छिद्र हो जाते हैं। इनमें पीड़ा होती रहती है। यह तीन प्रकार का होता है।
(1) कम्पलीट फिश्चुला (2) ब्लाइण्ड इण्टरनल फिश्चुला और (3) ब्लाइण्ड एक्स्टर फिश्चुला।
उपचार
(a) पियोनिया 6-स्राव हर समय और अधिक होता हो. दर्द और तनाव हमेशा बना रहे तथा मलद्वार भीगा बना रहने पर।
(b) साइलिसिया 200- कब्ज के साथ रोग का होना, पतली और बदबूदार मवाद हो तो साइलिसिया इस रोग की महाऔषधि है।
(c) ग्रेफाइटिस 200- मलद्वार के फटे घावों में उपयोगी दवा।
(d) ऐसिड नाइट्रिकम 200- मलद्वार में पाखाना होने के पश्चात् बहुत ज्यादा दर्द होता है।
(e) सल्फर 30- मलद्वार में सूजन और टीस का दर्द होता है।
(1) औरम म्यूर 200- यह भगंदर की बहुत ही उत्कृष्ट औषधि मानी गयी है। भगंदर की असहनीय पीड़ाओं के उपचार में यह दवा बहुत ही उपयोगी है। रोगी को तत्काल लाभ मिलने लगता है।
12. अपेंडिक्स की पीड़ा (Appendicitis)
इस बीमारी में रोगी को बड़ी ही असहनीय पीड़ा होती है। दर्द एकदम से आता है और धीरे-धीरे ठीक हो जाता है। पेट में मरोड़ के समान दर्द होता है। चेहरा लाल हो जाता है। सामने झुकने से दर्द में आराम मिलता है।
उपचार
(a) ब्रायोनिया 30- जब चुपचाप लेटे रहने से आराम मिलता हो तथा जरा सा भी हिलने डुलने से पेट में दर्द शुरू हो जाता हो। पानी की प्यास निरंतर बनी रहती है। इसमें ब्रायोनिया 30 रामबाण औषधि मानी गयी है।
(b) पल्सेटिला 30- कडुआ स्वाद तथा मुँह में दुर्गन्ध हो। पेट में भंयकर पीड़ा, रोगी दर्द से छटपटा रहा हो, इसमें शरीर के वस्त्र भी असहनीय लगने लगते हैं।
(c) नक्सवोमिका 30- पेट में ऐंठन तथा सिकुड़न युक्त वेदना में इसका प्रयोग करें।
(d) आइरिस टेनेएक्स 6- एपेन्डेसाइटिस की बहुत ही मशहूर दवा है। इसे देने से रोगी को तत्काल आराम मिलने लगता है।
(e) बेलाडोना 30- दर्द एकदम से आता है तथा प्रायः असहनीय होता है।
13. हार्निया या बहिःसरण (Hernia)
आँत या नाड़ी का थोड़ा सा अंश उदर-प्राचीर के भीतर से बाहर निकलकर फूल जाता है इसी को आँत उतरना कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है। (क) इंगुइनल और (ख) अम्बिलिकला जंघा सन्धि या गिल्टी की जगह के हार्निया को इंगुइनल कहते हैं। इसमें आँत पेट से निकलकर अण्डकोष में आ जाती है और निकली हुई आँत अगर उसी समय पेट के अन्दर नहीं चली जाती है तो उसे इरिडिउसिबुल और जब अन्त्रथैली के बाहर निकलकर अण्डकोष के भीतर ही रुकी रहे और उसे अपने स्थान में न लाया जा सके तो उसे स्टैगुलटेड हार्निया कहते हैं और जब आँत बाहर निकलकर वापस नहीं आती है या वापस आकर फिर बाहर निकल जाती है तो ऐसी अवस्था को इनकारसिरेटेड कहते हैं। अम्बिकल हार्निया प्रायः बच्चों को ही होता है।
उपचार
(a) नक्स वोमिका 30- बायीं ओर का हार्निया। आधी रात के बाद दर्द का बढ़ना।
(b) लाइको पोडियम 200- दाहिनी ओर का हार्निया। पेट में गैस नीचे से पास होती है।
(c) आर्निका 200- चोट के कारण हार्निया हो जाये। (d) कलकैरिया कार्व 200- थुलथुली देह, सिर के पिछले भाग में अधिक पसीना।
(e) काकुलस 30- नाभि स्थान से उतरने की अच्छी दवा है।
14. काच निकलना (Prolapse of Rectum)
गुदा द्वार से अन्त्र बाहर निकलने को काच का बाहर निकलना कहलाता है। यह रोग प्राय: बच्चों में अधिक पाया जाता है। मलत्याग के समय अधिक जोर लगाने से प्रायः यह रोग हो जाता है।
(a) एलोज 200- मलत्याग के समय काच निकलने पर।
(b) सल्फर 1000- पुराने कब्ज में।
(c) इग्नेशिया 200- हर बार मलत्याग के समय काच का बाहर निकलना।
(d) पोडोफाइलम 200- हर बार मलत्याग करते ही काच का बाहर निकल आना।
(e) रूटा 200- जरा सा जोर लगाते ही काच का बाहर निकल आना।
(1) मर्क कोर 30- आमाशय रोग के कारण काच निकलना। नोट- यदि काच बाहर निकल जाये तो इसे अंगुली से अन्दर कर देना चाहिए।
15. पित्त की थैली की पथरी (Gal Bladder Stone)
पित्त की थैली में जब पथरी हो जाती है तो रोगी को असहनीय पीड़ा होती है। तेज दर्द पित्त की थैली के फैलने या सिकुड़ने से होता है। दर्द बहुत तेज होता है तथा एकाएक होता है, उल्टी होती है, पसीना आने लगता है। दर्द अधिकतर नाभि की दायीं ओर होता है और कभी-कभी बायें कन्धे में भी प्रतीत होता है।
उपचार
(a) नक्सवोमिका 30- पित्ताशय की ऐंठन, दर्द हिलने-डुलने तथा दबाने से बढ़े और सेंक से राहत मिले।
(b) कैलकेरिया कार्ब 30- यकृत प्रदेश में जब डंक जैसा दर्द और दबाव का अनुभव हो।
(c) चायना 30- पित्त की पथरी बनने से रोकती है।
(d) मैग्नेशिया म्यूर 30- दाहिनी करवट लेटने से दर्द में वृद्धि होती है।
(e) चेलिडोनियम 6- पित्त पथरी का दर्द दाहिने कन्धे के नीचे बना रहता है।
(1) कार्युअस मैरियन्स 6- यकृत वृद्धि के साथ पित्त पथरी, पित्ताशय (Gall Bladder) की सूजन में बहुत ही उपयोगी दवा होती है।
16. कृमि (Worms)
हर व्यक्ति के पेट में कुछ न कुछ कृमि सदा मौजूद रहते हैं। ये व्यक्ति के शरीर को रोगी बना देते है। बच्चों में कृमि रोग का होना सामान्य बात है। विशेषतः ये कृमि तीन प्रकार के होते हैं। (1)• छोटी-छोटी सूत की तरह (2) गोले लम्बे केंचुए की तरह तथा (3) लम्बे फीते की तरह। कृमि होने पर नींद में भी दाँत कड़कड़ाते रहते हैं। पहले प्रकार के कृमि प्रायः मलद्वार के पास रहते हैं, जबकि दूसरे प्रकार के कृमि प्रायः छोटी आंत में रहते हैं तथा तीसरे प्रकार के कृमि लम्बाई 10 फिट तक हो सकती है या इससे अधिक भी होती है।
उपचार
(a) सिना 200- सभी प्रकार के कृमि की बहुत ही उपयोगी दवा है।
(b) सेण्टोनाइन 1 एक्स- यह भी कृमि रोग की अच्छी दवा मानी जाती है।
(c) स्टैनम 30- इसके खाने से ही कृमि बाहर निकल जाते हैं।
(d) नेट्मफास 3 एक्स, 30- सभी तरह के कृमि की बहुत अच्छी दवा है।
(e) चेनोपोडियम 3 एक्स, 30-चिपटे और गोले कृमियों की बहुत अच्छी दवा मानी गयी है।
मेरा वजन 85 किलो है और hight 5.3 है
पेट भी नहीं साफ नहीं होता है और रात में सोते समय नाक से पेट का पानी निकालता है जिससे पानी साँस की नली मे चला जाता है और खांसी आने लगती है
टोटल बॉडी के सिम्पटम्स बताइये. और मेडिकल हिस्ट्री क्या है।
सर मेरा लिवर फैटी हो गया है रात में सोते समय पेट का पानी नाक से निकलता है जिसके कारण
पानी साँस की नली मे चला जाता है और खांसी आने लगती है
Pencrititise, sugar
IBS problem
रविकांत जी क्या इलाज चल रहा है अभी
सर मेरे को पैरो में दर्द रहता है और पैर की ऊँगली में गाठे है कुछ हाथ की ऊँगली में भी उठने बैठने में दर्द होता है क्या करू सर